
Journal of Advances in Developmental Research
E-ISSN: 0976-4844
•
Impact Factor: 9.71
A Widely Indexed Open Access Peer Reviewed Multidisciplinary Bi-monthly Scholarly International Journal
Plagiarism is checked by the leading plagiarism checker
Call for Paper
Volume 16 Issue 1
2025
Indexing Partners



















प्रेमचन्द्र के उपन्यासों का ऐतिहासिक संदर्भ और उनकी सामाजिक उपादेयता
Author(s) | मनमोहन मीणा |
---|---|
Country | India |
Abstract | हिन्दी साहित्य में उपन्यास लेखन की परंपरा का आरंभ भारतेन्दु युग से हुआ था, लेकिन इसे वास्तविक पहचान और दिशा देने का कार्य किया है हिन्दी साहित्य के महान लेखक मुंशी प्रेमचन्द्र ने। वे एक ऐसे कलम के सिपाही थे जिन्होंने उपन्यास के माध्यम से समाज के हर वर्ग की गहरी और संवेदनशील छवियां प्रस्तुत कीं। प्रेमचन्द्र का उपन्यास लेखन न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह समाज के विभिन्न आयामों की गहरी समझ को भी उजागर करता है। उन्होंने निम्नवर्ग, निम्न-मध्यमवर्ग, मध्यमवर्ग, और उच्चवर्ग तक की सामाजिक स्थितियों का सूक्ष्मता से विश्लेषण किया और इन वर्गों के जीवन के संघर्षों और कठिनाइयों को समाज के सामने रखा। उनके उपन्यासों में सामाजिक वर्ण व्यवस्था—ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शूद्र—की गहरी समीक्षा की गई है, जो भारतीय समाज के आंतरिक संघर्षों और असमानताओं को उजागर करती है। प्रेमचन्द्र का लेखन सामाजिक यथार्थ का स्पष्ट और कठोर चित्रण प्रस्तुत करता है। उनकी कृतियाँ, जैसे 'सेवा सदन' और 'गोदान', समाज में व्याप्त अन्याय, शोषण और वर्ग भेद की समस्याओं को उजागर करती हैं। इन कृतियों के माध्यम से उन्होंने भारतीय समाज के जटिल तंत्र को न केवल प्रस्तुत किया, बल्कि उसका आलोचनात्मक विश्लेषण भी किया। उनका लेखन न केवल साहित्यिक उत्कृष्टता का प्रतीक है, बल्कि भारतीय समाज में व्याप्त विषमताओं के खिलाफ एक सशक्त आवाज भी है। प्रस्तावना महात्मा गांधी ने भारतीय समाज में सुधार के लिए जो दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, उसे 'सत्यं शिवं सुन्दरं' के रूप में हिन्दी गद्य साहित्य में साकार करने वाले साहित्यकार अगर कोई थे, तो वे प्रेमचन्द ही थे। गांधीजी के विचारों को सशक्त रूप से व्यक्त करने वाले साहित्यकार के रूप में प्रेमचन्द का नाम सबसे पहले आता है, क्योंकि उनका लेखन गांधीवादी विचारधारा से पूरी तरह मेल खाता था। गांधीजी ने जैसे समाज सुधार और राजनीति को एक साथ जोड़ते हुए दलितों के उद्धार, मादक द्रव्यों के निषेध, अस्पृश्यता निवारण, स्त्रियों की उन्नति, और प्रौढ़ शिक्षा को बढ़ावा देने का कार्य किया, उसी तरह प्रेमचन्द के लेखन में भी इन मुद्दों पर विशेष ध्यान दिया गया। गांधीजी ने भारतीय नारी को उसके पारंपरिक दायरे से बाहर निकालने का जो आह्वान किया, उसका प्रभाव प्रेमचन्द के नारी पात्रों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। प्रेमचन्द के उपन्यासों में नारी की स्थिति और उनके संघर्षों की जो चित्रण मिलता है, वह उस समय की सामाजिक जागृति का प्रतीक है। प्रेमचन्द का साहित्य अपने समय की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक प्रवृत्तियों का सशक्त प्रतिनिधित्व करता है और वह युग का दर्पण बनकर सामने आता है। यही कारण है कि यह कहा जाता है कि अगर प्रेमचन्द का साहित्य न होता, तो युग के भारत का इतिहास कहीं खो जाता। प्रेमचन्द को केन्द्र में रखकर हिन्दी उपन्यास की विकास यात्रा को तीन प्रमुख युगों में विभाजित किया जा सकता है: 1. प्रेमचन्द के पूर्ववर्ती उपन्यास 2. प्रेमचन्द युगीन उपन्यास 3. प्रेमचन्दोत्तर उपन्यास इन तीनों युगों में प्रेमचन्द का योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण है और उनके साहित्य को समग्र रूप में समझने से हमें भारतीय समाज के बदलते स्वरूप का गहरा अध्ययन करने का अवसर मिलता है। प्रेमचन्द के पूर्ववर्ती उपन्यास प्रेमचन्द से पहले हिन्दी उपन्यास साहित्य जासूसी, तिलस्मी, ऐय्यारी और काल्पनिक रोमांस से भरा हुआ था। इस तरह के उपन्यास अक्सर कौतूहल और सनसनी उत्पन्न करने के उद्देश्य से लिखे जाते थे, जो कि मुख्य रूप से मनोरंजन के साधन होते थे। इन उपन्यासों का वास्तविक जीवन और समाज से कोई खास संबंध नहीं होता था। वे आदर्शवादी या कल्पनाशील थे, जो आमतौर पर मानवता के वास्तविक संघर्षों और समस्याओं से बहुत दूर थे। यह उपन्यास साहित्य न केवल साहित्यिक दृष्टिकोण से कमजोर था, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को उठाने में भी पूरी तरह विफल था। हिन्दी उपन्यास की यह शैशवास्था प्रेमचन्द के आगमन के साथ समाप्त हुई। प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों के माध्यम से समाज के गहरे सवालों और यथार्थ को प्रस्तुत किया। उनके लेखन में व्यक्ति और समाज की वास्तविक समस्याओं को केंद्र में रखा गया। उन्होंने साहित्य में सामाजिक यथार्थवाद की स्थापना की, जिसे पहले के उपन्यासों में न तो देखा गया था और न ही समझा गया था। प्रेमचन्द के उपन्यास न केवल भारतीय समाज की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक धारा की परछाईं थे, बल्कि वे समाज के प्रत्येक वर्ग के जीवन को संवेदनशीलता और यथार्थ के साथ चित्रित करते थे। यदि उपन्यास को मानव जीवन का महाकाव्य और मानव चरित्र का चित्रण माना जाये, तो प्रेमचन्द से पहले का हिन्दी उपन्यास इस दायरे से बाहर था। प्रेमचन्द ने अपने लेखन से उपन्यास के रूप को केवल मनोरंजन का माध्यम न मानकर उसे सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त औजार बना दिया। उनका साहित्य न केवल मानवता की सच्चाई को उकेरता है, बल्कि यह समाज में व्याप्त कुरीतियों, असमानताओं और अन्याय को चुनौती देता है। प्रेमचन्द ने न केवल उपन्यास के विषय को बदल दिया, बल्कि उन्होंने इसके शिल्प में भी एक नई दिशा प्रदान की। उनके उपन्यासों में जहाँ एक ओर संवेदनशीलता और मानवीय मूल्य थे, वहीं दूसरी ओर उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों के जीवन की गहरी और कटीली सच्चाइयों को भी सामने रखा। प्रेमचन्द के उपन्यासों में यथार्थवाद की जो लहर आई, उसने हिन्दी साहित्य को एक नई दिशा दी। उनका उपन्यास साहित्य में समग्र दृष्टिकोण और विश्लेषण की एक नई शैली का प्रवेश हुआ, जो समाज के हर पहलू को समेटता था। प्रेमचन्द के पूर्ववर्ती उपन्यासकारों ने शायद ही कभी इस तरह की सामाजिक और मानसिक गहराई से काम लिया हो। प्रेमचन्द के बाद के उपन्यासकारों ने किसी न किसी रूप में उनके आदर्शों का अनुसरण किया। यद्यपि हिन्दी उपन्यास साहित्य आज काफी विकसित हो चुका है और इसमें नयी शैलियों और विषयों का समावेश हुआ है, फिर भी प्रेमचन्द जैसा युग दृष्टा उपन्यासकार हिन्दी साहित्य में नहीं हुआ। प्रेमचन्द ने न केवल हिन्दी साहित्य में एक युग परिवर्तन किया, बल्कि उन्होंने उपन्यास को उस स्थान पर स्थापित किया, जहाँ से उसे कोई पीछे मुड़कर नहीं देख सकता। उनकी लेखनी आज भी उपन्यास साहित्य के सम्राट के रूप में मानी जाती है। उनके योगदान को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अगर हिन्दी उपन्यास जगत में कोई सम्राट है, तो वह प्रेमचन्द ही हैं। प्रेमचन्दयुगीन उपन्यास एवं प्रेमचन्द का उपन्यास क्षेत्र में स्थान, महत्व और योगदान प्रेमचन्द का साहित्य न केवल हिन्दी उपन्यास की धारा को दिशा देने वाला था, बल्कि उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जीवन के यथार्थ को अपनी लेखनी के माध्यम से सशक्त रूप से उजागर किया। उनके उपन्यासों में आदर्श और यथार्थ का संयोजन हुआ, जिससे जीवन के संघर्ष और चेतना का सुंदर चित्रण हुआ। प्रेमचन्द के उपन्यासों में न केवल सामाजिक वर्गों का चित्रण था, बल्कि उन वर्गों के भीतर छिपे असंख्य संघर्षों, अभावों और आकांक्षाओं को भी उकेरा गया। उनका उपन्यास गोदान भारतीय समाज का समग्र चित्र प्रस्तुत करने वाला एक महाकाव्यात्मक रचना है, जो समाज के विभिन्न पहलुओं की गहरी समझ और मर्म को उद्घाटित करती है। गोदान में प्रेमचन्द ने किसानों की स्थितियों, उनके संघर्षों, और समाज में उनकी उपेक्षा को विस्तार से दिखाया है। यह उपन्यास समाज की उस परत को खोलता है, जिसे हम अक्सर नज़रअंदाज कर देते हैं। प्रेमचन्द के शब्दों में "गोदान" भारत की मिट्टी और उसके वास्तविक स्वरूप को बहुत करीब से महसूस करने की कोशिश है। प्रेमचन्द का महत्व सिर्फ उनके लेखन तक सीमित नहीं है, बल्कि उनके द्वारा दिखाए गए समाज के विभिन्न वर्गों के संघर्ष और उनके उत्थान के प्रयासों में भी था। उनके उपन्यासों में निम्न और मध्यम वर्ग की जीवन स्थितियों की गहरी समझ और उनकी अभिव्यक्ति थी। इस दृष्टि से प्रेमचन्द को हिन्दी साहित्य में एक युगदृष्टा और समाज सुधारक के रूप में देखा जाता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्रेमचन्द के महत्व को इस प्रकार व्यक्त किया है: "प्रेमचन्द शताब्दियों से पददलित, अपमानित और उपेक्षित कृषकों की आवाज थे। पर्दे में कैद पग-पग पर लांछित और असहाय नारी जाति के जबर्दस्त वकील थे। गरीबों और बेबसों के प्रचारक थे।" प्रेमचन्द की लेखनी ने उन्हीं शोषित वर्गों को एक आवाज दी, जिन्हें समाज और साहित्य दोनों ने उपेक्षित किया था। उनके उपन्यासों में सेवा सदन, गोदान, गबन, कर्मभूमि, रंगभूमि, आदि के माध्यम से समाज की वास्तविक स्थितियों को प्रस्तुत किया गया। सेवा सदन में उन्होंने नारी की स्थिति और उसकी सामाजिक बंदिशों को बेबाक तरीके से उजागर किया। गोदान में किसान के संघर्ष को केंद्र में रखते हुए, प्रेमचन्द ने समाज के उपेक्षित वर्गों के बारे में समाज को जागरूक किया। प्रेमचन्द का योगदान हिन्दी उपन्यास साहित्य में अनमोल और अद्वितीय था। उनके उपन्यासों ने न केवल समाज के सबसे निचले तबके की आवाज उठाई, बल्कि उन्होंने उस समय के समाज की गहरी नब्ज को छुआ। प्रेमचन्द का साहित्य न केवल हिन्दी साहित्य का इतिहास बन गया, बल्कि वह भारतीय समाज के उस दौर का भी साक्षी है, जिसमें परिवर्तन की आवश्यकता थी। |
Keywords | . |
Field | Arts |
Published In | Volume 16, Issue 1, January-June 2025 |
Published On | 2025-01-27 |
Cite This | प्रेमचन्द्र के उपन्यासों का ऐतिहासिक संदर्भ और उनकी सामाजिक उपादेयता - मनमोहन मीणा - IJAIDR Volume 16, Issue 1, January-June 2025. |
Share this


CrossRef DOI is assigned to each research paper published in our journal.
IJAIDR DOI prefix is
10.71097/IJAIDR
Downloads
All research papers published on this website are licensed under Creative Commons Attribution-ShareAlike 4.0 International License, and all rights belong to their respective authors/researchers.
