Journal of Advances in Developmental Research

E-ISSN: 0976-4844     Impact Factor: 9.71

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जयपुर चित्रकला: मुगल और राजपूत शैली का ऐतिहासिक सम्मिलन

Author(s) Ghanshyam lal dhaker
Country India
Abstract भारत के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में राजस्थान ने एक विशिष्ट स्थान हासिल किया है। इसे पहले 'राजपूताना' कहा जाता था, जो कर्नल जेम्स टॉड द्वारा दिया गया नाम है। राजस्थान की ऐतिहासिक महत्ता सिर्फ युद्धों और शौर्य के कारण ही नहीं, बल्कि कला और संस्कृति में भी इसका योगदान अद्वितीय रहा है। यहाँ के चित्रकला के रूप में प्राचीन और आधुनिक दोनों कालों में समृद्ध परंपराएँ देखने को मिलती हैं। राजस्थान की चित्रकला अपनी विविधता और समृद्धि के लिए प्रसिद्ध है, जो भित्ति चित्रों, संग्रहालयों और विभिन्न सार्वजनिक एवं निजी स्थानों में उकेरी गई है। इन चित्रों ने न सिर्फ राजस्थान की संस्कृति और इतिहास को संरक्षित किया, बल्कि भारतीय चित्रकला के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राजस्थानी चित्रकला की परंपरा बहुत पुरानी और समृद्ध रही है। इसे 16वीं सदी में विशेष पहचान मिली, जब इसने अपभ्रंश शैली, जैन शैली और पश्चिमी भारतीय शैली का संगम दिखाया। के. पीजाय सवाल ने इसे ग्यारहवीं शताब्दी के उदयादित्य के चित्रों से जोड़ा है, जो एलोरा में बनाए गए थे। इसके बाद, 8वीं शताब्दी के गुर्जर-प्रतिहार काल से लेकर 16वीं शताब्दी तक, राजपूताना में चित्रकला ने अपनी पूरी यात्रा तय की। इस दौरान, विभिन्न शैलियाँ जैसे अपभ्रंश शैली, जैन शैली और पश्चिमी भारतीय शैली का प्रभाव देखा गया, जिससे राजस्थानी चित्रकला को एक नया रूप मिला। सवाई जय सिंह के समय जयपुर में चित्रकला की एक नई दिशा देखने को मिली। उन्होंने न केवल कला को प्रोत्साहित किया, बल्कि इसे एक शास्त्रीय और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी जोड़ा। जयपुर चित्रकला की शैली में धार्मिक चित्रण, शाही दरबारों के दृश्य, और राजसी जीवन के विविध पहलुओं को दर्शाया गया। उनके संरक्षण और प्रोत्साहन से यह कला एक नई ऊंचाई पर पहुंची और जयपुर चित्रकला को भारतीय कला जगत में एक विशिष्ट स्थान मिला। इस दौरान चित्रकला न केवल कला रूप में विकसित हुई, बल्कि समाज पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा, जो उस समय के लोगों के जीवन, उनके विश्वासों और सांस्कृतिक परिवेश को चित्रित करता था।
राजस्थानी चित्रकला का यह सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण आज भी महत्व रखता है, और यह भारतीय कला की एक अमूल्य धरोहर के रूप में जानी जाती है।

ऐतिहासिक विश्लेषण और इतिहास लेखन
राजस्थानी चित्रकला का निर्माण मध्ययुगीन काल की एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर है। यह कला शैली इस दौरान हुए राजनीतिक उथल-पुथल और सामाजिक परिवर्तनों से गहरे रूप में प्रभावित रही। 15वीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी तक का समय राजस्थानी चित्रकला के विकास और विस्तार के लिए ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस अवधि में इस कला के विभिन्न रूपों और शैलियों का प्रादुर्भाव हुआ, जो भारतीय चित्रकला के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। राजस्थानी चित्रकला पर कई विद्वानों ने व्यापक शोध और विश्लेषण किया है, जिनमें प्रमुख नामों में ओ. डब्ल्यू. जी. आर्कर (Indian Miniatures, London 1960), बासिल ग्रे (Rajput Painting, Oxford 1951), पर्सी ब्राउन (Indian Painting, Oxford 1947), मोती चन्द्र (Mewar Painting, Bundi Painting, New Delhi 1959), ओ.सी. गांगूली (Masterpieces of Rajput Painting), कार्ल. ले. खंडेलवाल (The Development of Style in Indian Painting, Madras), राय कृष्णदास (Mughal Miniatures, New Delhi 1955), और रोजा सीमीनो, डॉ. भगवतीलाल, रामनाथ आदि विद्वान शामिल हैं। इन सभी ने राजपूत चित्रकला की ऐतिहासिक समीक्षा की और इस कला के विकास में अहम योगदान दिया है।
राजस्थानी चित्रकला के प्रमुख केंद्रों में जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़, बूंदी-कोटा, जैसलमेर, उदयपुर और नाथद्वार का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। इन क्षेत्रों में राजकीय और निजी संग्रहालयों के साथ-साथ कला प्रेमियों के कला भंडारों में भी समृद्ध चित्रों का संग्रह मौजूद है।
राजपूताना की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों का प्रभाव इस चित्रकला पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह चित्रकला न केवल उस समय के शाही दरबारों और राजसी जीवन को चित्रित करती है, बल्कि आम जनता के जीवन और उनकी भावनाओं को भी बड़े नजदीकी से दर्शाती है। इस कला का उद्देश्य केवल भव्यता और ऐश्वर्य को प्रस्तुत करना नहीं था, बल्कि यह उस समय की समाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाओं को भी जीवित करने का एक सशक्त माध्यम था।
राजस्थानी चित्रकला की विशेषताएँ जैसे रंगों का सटीक प्रयोग, जीवन के विभिन्न पहलुओं की गहरी अभिव्यक्ति, और नायक-नायिका के चित्रण में सूक्ष्म भावनाओं का प्रभाव दर्शाता है कि यहाँ की कला सीधे आम आदमी के दिल से जुड़ी हुई थी। इस शैली में जीवन के सत्य, कोमलता, और आत्मानुशासन की गहरी समझ प्रस्तुत की जाती है।
जयपुर शैली, जो राजस्थान की चित्रकला का एक प्रमुख अंग मानी जाती है, ने न केवल शाही परिवारों के चित्रण में अपितु सामान्य जनजीवन की विविधताओं में भी सुंदरता और संतुलन का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। इस शैली में रंगों का इस्तेमाल, भावनाओं की सूक्ष्म अभिव्यक्ति और शाही दरबारों के दृश्य का चित्रण, सभी दर्शाते हैं कि यह कला अपनी सरलता और स्पष्टता के कारण विशिष्ट थी। जयपुर शैली में राजा-महाराजाओं के पोट्रेट चित्रों, जैसे दरबारी चित्रकार साहिब राम द्वारा तैयार किए गए, दर्शकों को न केवल ऐतिहासिक दृष्टिकोण से जुड़ा करते हैं, बल्कि उनके शाही जीवन की भव्यता और सामरिक शक्ति को भी व्यक्त करते हैं। राजस्थानी चित्रकला के इस विकास में मुग़ल चित्रकला का भी एक महत्वपूर्ण योगदान था, विशेष रूप से जयपुर शैली में मुग़ल कला का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है।

राजस्थानी चित्रकला का विभाजन और वर्गीकरण
राजस्थानी चित्रकला का विकास विभिन्न कलाकारों के योगदान से हुआ है। यह कला राजस्थान के प्राचीन नगरों, राजधनियों और धार्मिक स्थलों पर पल्लवित हुई, जहां चित्रकला ने समाज के विभिन्न पहलुओं को प्रदर्शित किया। राजस्थानी चित्रकला का जन्म धर्मपीठों, लोककलात्मक मिथकों, और राजाओं, सामंतों, जागीदारों, नगर प्रमुखों तथा कलाकारों के योगदान से हुआ। इन योगदानों के आधार पर राजस्थानी चित्रकला को विभिन्न स्कूलों और शैलियों में वर्गीकृत किया गया है।
Keywords .
Field Arts
Published In Volume 16, Issue 1, January-June 2025
Published On 2025-01-27
Cite This जयपुर चित्रकला: मुगल और राजपूत शैली का ऐतिहासिक सम्मिलन - Ghanshyam lal dhaker - IJAIDR Volume 16, Issue 1, January-June 2025.

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