Journal of Advances in Developmental Research

E-ISSN: 0976-4844     Impact Factor: 9.71

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दयानंद सरस्वती का सामाजिक विचारधारा

Author(s) Bharat Singh Gocher
Country India
Abstract स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के टंकारा गांव में हुआ था। उनका मूल नाम मूलशंकर था। एक परंपरागत ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के कारण वे बचपन से ही धार्मिक संस्कारों से ओतप्रोत थे। उनके पिता एक धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, जिन्होंने उन्हें वेदों और शास्त्रों का अध्ययन कराया। किन्तु बाल्यकाल से ही दयानंद के मन में धर्म और समाज की वास्तविक स्थिति को लेकर अनेक प्रश्न उठते रहे। उन्होंने अपने परिवार द्वारा स्थापित मूर्तिपूजा और रूढ़ियों पर प्रश्न खड़े किए, जिससे उनका झुकाव वैदिक ज्ञान और तर्क पर आधारित जीवन की ओर हुआ। बाल्यकाल में ही जब उन्होंने देखा कि समाज में धर्म के नाम पर अंधविश्वास और बाह्याचार बढ़ रहा है, तब उन्होंने सत्य की खोज के लिए अपना घर त्याग दिया और संन्यास ग्रहण कर लिया। इसके बाद उन्होंने अनेक गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की और अंततः स्वामी विरजानंद से वेदों का गहन अध्ययन किया। स्वामी विरजानंद के मार्गदर्शन में उन्होंने समाज में फैले अधर्म और अज्ञानता को दूर करने का संकल्प लिया। उन्होंने वेदों के मूल सिद्धांतों को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया और आर्य समाज की स्थापना की। स्वामी दयानंद सरस्वती का योगदान केवल धार्मिक सुधार तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने सामाजिक और शैक्षिक क्षेत्र में भी गहरा प्रभाव डाला। वे एक सशक्त समाज की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें जातिवाद, अज्ञानता, छुआछूत और लैंगिक भेदभाव का कोई स्थान न हो। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह, बाल विवाह उन्मूलन और समानता के सिद्धांत को बढ़ावा दिया। उन्होंने "सत्यार्थ प्रकाश" नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें उन्होंने वेदों के सिद्धांतों के आधार पर जीवन जीने का संदेश दिया। इस ग्रंथ में उन्होंने समाज के हर पहलू पर विचार व्यक्त किए और यह बताया कि कैसे एक सभ्य, शिक्षित और उन्नत समाज की स्थापना की जा सकती है।
स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन संघर्ष और समाज सुधार के प्रति समर्पण का उदाहरण है। वेदों के पुनर्जागरण और सामाजिक सुधार की उनकी प्रेरणादायक विचारधारा ने न केवल भारत में बल्कि विश्व स्तर पर भी प्रभाव डाला। उनका उद्देश्य केवल धार्मिक पुनरुद्धार तक सीमित नहीं था, बल्कि वे एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार और सम्मान मिले। उनकी वैचारिक विरासत आज भी भारतीय समाज में प्रासंगिक बनी हुई है।
स्त्री शिक्षा और महिला सशक्तिकरण
स्वामी दयानंद सरस्वती ने महिलाओं की शिक्षा और उनके सशक्तिकरण को अत्यंत आवश्यक माना। उन्होंने उस समय प्रचलित रूढ़िवादी विचारों का खंडन किया, जिनके अनुसार महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता था। उनका मानना था कि एक शिक्षित समाज की नींव तभी रखी जा सकती है जब महिलाएँ भी शिक्षित हों और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनें। उन्होंने न केवल महिलाओं की शिक्षा पर बल दिया, बल्कि समाज में प्रचलित बाल विवाह, सती प्रथा और पर्दा प्रथा जैसी कुप्रथाओं का भी विरोध किया। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया और महिलाओं को सामाजिक तथा धार्मिक मामलों में समान अधिकार देने की वकालत की। उनके प्रयासों से भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति सकारात्मक परिवर्तन आया और आगे चलकर आर्य समाज के माध्यम से महिला शिक्षा को बढ़ावा मिला।
मूर्तिपूजा और अंधविश्वास के विरुद्ध विचार
स्वामी दयानंद सरस्वती ने समाज में व्याप्त अंधविश्वास और मूर्तिपूजा का विरोध किया। उनका मानना था कि ईश्वर निराकार है और उसकी उपासना वैदिक रीति से की जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि धर्म का वास्तविक स्वरूप सत्य, तर्क और नैतिकता पर आधारित होना चाहिए, न कि अंधविश्वास और बाह्याचार पर। वे उस समय प्रचलित अनेक धार्मिक अनुष्ठानों और पाखंडों के विरुद्ध थे, जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था।
उन्होंने पुरोहितवाद और धर्म के नाम पर हो रहे शोषण का विरोध किया। वे मानते थे कि धर्मग्रंथों की सही व्याख्या की जानी चाहिए, ताकि समाज में व्याप्त मिथ्याचार समाप्त हो और लोग वास्तविक धर्म का पालन कर सकें। उन्होंने कहा कि समाज को वेदों के ज्ञान की ओर लौटना चाहिए और धर्म को जीवन में एक सकारात्मक शक्ति के रूप में अपनाना चाहिए।
शिक्षा और समाज सुधार
स्वामी दयानंद सरस्वती शिक्षा को सामाजिक उन्नति का सबसे महत्वपूर्ण साधन मानते थे। उन्होंने गुरुकुल शिक्षा प्रणाली को पुनर्जीवित करने पर जोर दिया, जिससे विद्यार्थियों को व्यावहारिक ज्ञान, नैतिक शिक्षा और वेदों के सिद्धांतों पर आधारित जीवनशैली का प्रशिक्षण दिया जा सके। उन्होंने आर्य समाज के माध्यम से अनेक गुरुकुलों की स्थापना की, जहाँ जाति, लिंग और आर्थिक स्थिति के भेदभाव के बिना सभी को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर दिया गया। उन्होंने उस समय प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली की आलोचना की, क्योंकि उनका मानना था कि यह प्रणाली भारतीय समाज की मूल आवश्यकताओं को पूरा करने में असफल रही है। उन्होंने एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का समर्थन किया जो न केवल बौद्धिक विकास करे, बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति भी प्रदान करे।
स्वामी दयानंद सरस्वती भारतीय समाज के एक महान समाज सुधारक थे, जिन्होंने सामाजिक समानता, स्त्री शिक्षा, जातिवाद उन्मूलन और धार्मिक सुधारों की वकालत की। उनकी विचारधारा ने भारतीय समाज में जागरूकता और परिवर्तन की एक नई लहर उत्पन्न की। वेदों की ओर लौटने का उनका संदेश केवल धार्मिक पुनर्जागरण तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने इसे समाज सुधार और आधुनिक चेतना के प्रसार के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत किया।आज भी उनकी शिक्षाएँ और विचार प्रासंगिक हैं। समाज में व्याप्त अंधविश्वास, जातीय भेदभाव और स्त्री शिक्षा जैसे मुद्दों पर उनके विचार हमें एक प्रगतिशील और समरस समाज की ओर ले जाने में सहायक हो सकते हैं। उनके प्रयासों का प्रभाव भारतीय समाज पर गहरा पड़ा और उनके आदर्श आज भी प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं।
महिला सशक्तिकरण और नारी शिक्षा
स्वामी दयानंद सरस्वती ने महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए अपने विचारों और कार्यों के माध्यम से भारतीय समाज में एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उनका मानना था कि समाज का वास्तविक विकास तब ही संभव है जब महिलाओं को समान अधिकार और अवसर मिलें। उन्होंने यह सिद्धांत प्रस्तुत किया कि महिलाएं समाज की आधी शक्ति हैं और उन्हें समान रूप से शिक्षा और अवसर प्राप्त होने चाहिए ताकि वे अपने जीवन में आत्मनिर्भर बन सकें। स्वामी दयानंद का यह दृष्टिकोण विशेष रूप से उस समय में महत्वपूर्ण था जब भारतीय समाज में महिलाओं को बहुत कम अधिकार प्राप्त थे और वे सामाजिक रूप से बहुत सीमित थीं।
बाल विवाह, सती प्रथा और पर्दा प्रथा का विरोध
स्वामी दयानंद सरस्वती ने भारतीय समाज में प्रचलित कई कुरीतियों का विरोध किया। इनमें बाल विवाह, सती प्रथा और पर्दा प्रथा शामिल थीं। बाल विवाह को उन्होंने समाज के लिए एक गंभीर समस्या माना और इसके खिलाफ आवाज उठाई। उनका मानना था कि बच्चों का विवाह उनके शारीरिक और मानसिक विकास में रुकावट डालता है, और इससे समाज का उत्थान संभव नहीं हो सकता।
सती प्रथा पर भी उन्होंने कड़ी आपत्ति जताई। स्वामी दयानंद का मानना था कि किसी महिला को अपने पति की मृत्यु के बाद आत्महत्या करने के लिए बाध्य करना अत्याचार है। उन्होंने इस प्रथा को पूरी तरह से नकारा और महिलाओं के जीवन और अधिकारों की रक्षा की आवश्यकता पर बल दिया।
पर्दा प्रथा भी स्वामी दयानंद के आलोचनाओं का मुख्य विषय थी। उन्होंने कहा कि महिलाएं समाज में पुरुषों के समान अधिकार और सम्मान की पात्र हैं, और पर्दा प्रथा उनके विकास में एक बड़ी बाधा है। उन्होंने महिलाओं को स्वतंत्र रूप से शिक्षा प्राप्त करने और समाज में भागीदारी करने के लिए प्रेरित किया।
नारी शिक्षा का प्रचार
स्वामी दयानंद सरस्वती का मानना था कि शिक्षा किसी भी समाज के विकास की नींव है और महिलाओं के लिए शिक्षा उतनी ही आवश्यक है जितनी पुरुषों के लिए। उन्होंने महिलाओं को शिक्षित करने के लिए कई कदम उठाए। इसके अंतर्गत उन्होंने महिलाओं के लिए विशेष रूप से शिक्षा संस्थानों की स्थापना की। आर्य समाज के अंतर्गत उन्होंने स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना की, जहां महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला। स्वामी दयानंद का यह विश्वास था कि यदि महिलाओं को शिक्षा प्राप्त होती है, तो वे न केवल अपनी स्थिति में सुधार ला सकती हैं, बल्कि पूरे समाज को भी एक सकारात्मक दिशा में मार्गदर्शन कर सकती हैं।
विधवा विवाह को प्रोत्साहन
स्वामी दयानंद सरस्वती ने विधवा विवाह को बढ़ावा देने का कार्य भी किया। उस समय भारतीय समाज में विधवाओं को सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से अपवित्र माना जाता था और उन्हें पुनर्विवाह की अनुमति नहीं दी जाती थी। स्वामी दयानंद ने इस कुरीति को नकारते हुए विधवा विवाह को वैध और उचित ठहराया। उनका मानना था कि महिलाओं को पुनः जीवन जीने का अधिकार है, और उन्हें सामाजिक उत्पीड़न से मुक्त होना चाहिए। स्वामी दयानंद सरस्वती के विचारों और कार्यों ने महिलाओं के अधिकारों और उनकी शिक्षा में सुधार लाने के लिए एक मजबूत नींव रखी। उन्होंने भारतीय समाज में महिलाओं के लिए समान अवसर और सम्मान की आवश्यकता को स्पष्ट रूप से रखा और यह सिद्ध किया कि समाज का समग्र विकास तभी संभव है जब महिलाएं भी अपने अधिकारों को जानने और उनका उपयोग करने में सक्षम हों। उनके द्वारा किए गए प्रयासों के कारण न केवल महिलाएं, बल्कि पूरा समाज ही प्रगति की दिशा में अग्रसर हुआ।
सामाजिक कुरीतियों के विरोध में विचार
स्वामी दयानंद सरस्वती ने भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासों, मूर्तिपूजा, धार्मिक कर्मकांड और पुरोहितवाद का कड़ा विरोध किया। उनका यह मानना था कि समाज में अज्ञानता और अंधविश्वास का बोलबाला था, जो प्रगति की राह में सबसे बड़ी बाधा था। उन्होंने अपने विचारों के माध्यम से लोगों को जागरूक किया और उन कुरीतियों को समाप्त करने के लिए प्रेरित किया जिनका कोई धार्मिक या वैज्ञानिक आधार नहीं था। स्वामी दयानंद का मानना था कि ईश्वर निराकार है और उसे किसी मूर्ति या प्रतीक के रूप में पूजा नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने मूर्तिपूजा के खिलाफ आवाज उठाई और यह बताया कि पूजा का सही तरीका वेदों के अनुसार यज्ञ और प्रार्थना से जुड़ा हुआ है। उनके अनुसार, केवल अंधविश्वास और धार्मिक आडंबरों से ही समाज में दरारें और कुरीतियाँ उत्पन्न होती हैं। उन्होंने लोगों से आग्रह किया कि वे धर्म के नाम पर होने वाले कर्मकांडों से दूर रहें और सत्य, अहिंसा, और नैतिक मूल्यों का पालन करें।
स्वामी दयानंद ने समाज में व्याप्त धार्मिक पाखंड और शोषण को समाप्त करने के लिए शिक्षा और विचारधारा के प्रचार-प्रसार पर जोर दिया। उन्होंने धार्मिक विश्वासों और कर्मकांडों के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाया और लोगों को अपने विवेक और तर्क शक्ति का उपयोग करने की सलाह दी।
शिक्षा और सामाजिक सुधार
स्वामी दयानंद सरस्वती ने शिक्षा को समाज सुधार का एक प्रमुख साधन माना। उनका मानना था कि शिक्षा केवल ज्ञान अर्जित करने का माध्यम नहीं, बल्कि यह समाज को जागरूक और सशक्त बनाने का सबसे बड़ा तरीका है। उन्होंने गुरुकुल शिक्षा प्रणाली को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया, जिससे विद्यार्थियों को वेदों और संस्कृत के माध्यम से धार्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण में सुधार हो सके। स्वामी दयानंद के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य केवल साक्षरता नहीं था, बल्कि यह लोगों को समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और कुरीतियों से बाहर निकालकर एक सशक्त और जागरूक नागरिक बनाना था। उन्होंने अपने अनुयायियों से यह आग्रह किया कि वे समाज के सभी वर्गों के लिए समान शिक्षा का अवसर प्रदान करें, जिससे वे आत्मनिर्भर और सशक्त बन सकें।
आर्य समाज के माध्यम से उन्होंने देशभर में शिक्षण संस्थानों की स्थापना की, जो उनकी सामाजिक और धार्मिक सुधारों का अंग बने। इन विद्यालयों में महिलाओं और पिछड़े वर्गों के लिए भी शिक्षा के द्वार खोले गए, जो उस समय की समाजिक व्यवस्था में एक बड़ा परिवर्तन था।

स्वराज और राष्ट्रवाद
स्वामी दयानंद सरस्वती भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूतों में से एक थे। उनका ‘स्वराज’ का विचार भारतीय समाज के जागरण और स्वतंत्रता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। उन्होंने अपने अनुयायियों को यह प्रेरणा दी कि भारत को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना चाहिए। उनका यह मानना था कि किसी भी राष्ट्र की असली स्वतंत्रता तब संभव है जब वह अपने धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों का सम्मान करते हुए स्वतंत्र रूप से कार्य कर सके। स्वामी दयानंद सरस्वती के विचारों ने भारतीय समाज में राष्ट्रवाद की भावना को बल दिया। उन्होंने भारतवासियों को जागरूक किया और यह बताया कि स्वतंत्रता केवल विदेशी शासकों से मुक्ति नहीं है, बल्कि यह अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता और समाज के विभिन्न वर्गों के बीच समानता के सिद्धांतों की स्थापना भी है। उनके विचारों से प्रेरित होकर कई स्वतंत्रता सेनानियों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष किया। स्वामी दयानंद ने यह स्पष्ट किया कि एक सशक्त राष्ट्र वही हो सकता है जो अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को समझे और उसे पूरी दुनिया में गर्व से प्रस्तुत करे।
स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन और उनके विचार भारतीय समाज में सुधार की दिशा में एक मील का पत्थर थे। उनके द्वारा प्रस्तुत विचारों और कार्यों ने भारतीय समाज को एक नई दिशा दी, जहाँ अंधविश्वास, मूर्तिपूजा, और कुरीतियों से मुक्ति की आवश्यकता समझी गई। शिक्षा, समानता और राष्ट्रवाद के सिद्धांतों के माध्यम से उन्होंने भारतीय समाज के हर वर्ग को जागरूक किया और समाज सुधार की दिशा में कदम बढ़ाया। उनका जीवन एक प्रेरणा है, जो हमें अपने समाज के सुधार और उन्नति के लिए निरंतर संघर्ष करने की प्रेरणा देता है।

निष्कर्ष
स्वामी दयानंद सरस्वती भारतीय समाज के महान सुधारकों में से एक थे, जिन्होंने समाज को अज्ञानता, अंधविश्वास और अन्याय से मुक्त कराने के लिए अपने जीवन को समर्पित किया। उनकी विचारधारा ने भारतीय समाज को एक नई दिशा दी और आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वेदों की ओर लौटने की उनकी अवधारणा ने भारतीय संस्कृति को एक नई पहचान दी और समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों के खिलाफ संघर्ष को मजबूत किया। स्वामी दयानंद ने सामाजिक समरसता, समानता, महिला सशक्तिकरण और शिक्षा के माध्यम से समाज को प्रगतिशील बनाने का कार्य किया। उनके विचारों से प्रेरित होकर भारतीय समाज में कई सकारात्मक बदलाव हुए, जिनमें जातिवाद, छुआछूत और धार्मिक आडंबरों के खिलाफ जागरूकता बढ़ी। उनकी शिक्षाएं आज भी प्रासंगिक हैं और समाज सुधार की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान करती हैं।
स्वामी दयानंद सरस्वती का योगदान भारतीय समाज में अडिग विश्वास, निष्ठा और आत्मनिर्भरता के प्रतीक के रूप में हमेशा जीवित रहेगा, और उनके द्वारा की गई धार्मिक और सामाजिक क्रांतियाँ भारतीय समाज की उन्नति में महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुईं। उनके विचार, उनके दृष्टिकोण, और उनके सुधार कार्य हमेशा हमें समाज की सुधारात्मक दिशा की ओर प्रेरित करते रहेंगे।

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Keywords .
Field Arts
Published In Volume 16, Issue 1, January-June 2025
Published On 2025-04-02
Cite This दयानंद सरस्वती का सामाजिक विचारधारा - Bharat Singh Gocher - IJAIDR Volume 16, Issue 1, January-June 2025.

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