Journal of Advances in Developmental Research

E-ISSN: 0976-4844     Impact Factor: 9.71

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डॉ. बी. आर. अम्बेडकर और जातिवाद: भारतीय समाज में सुधार की दिशा

Author(s) REKHA TAILOR
Country India
Abstract भारत में जातिवाद एक पुरानी और गहरी सामाजिक समस्या है, जो न केवल समाज की संरचना में बल्कि मानसिकता में भी गहरे जड़ें जमा चुकी है। यह भारतीय समाज को न केवल भिन्न वर्गों में बांटता है, बल्कि इससे समाज के विभिन्न हिस्सों, विशेष रूप से अनुसूचित जातियों, पिछड़े वर्गों और महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन भी होता रहा है। जातिवाद ने भारतीय समाज में नफरत, भेदभाव, और असमानता को जन्म दिया, जिससे लोगों के बीच सामाजिक दूरी और संकीर्ण मानसिकता का निर्माण हुआ। यह सामाजिक विषमता भारतीय समाज की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक रही है और समय के साथ इसकी जटिलता और गहराई बढ़ती रही।
इस सामाजिक कुरीति के खिलाफ डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपने जीवन में संघर्ष किया और समाज में बदलाव लाने के लिए अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाए। वे भारतीय समाज के एक महान विचारक, दलितों के अधिकारों के प्रवक्ता, और भारतीय संविधान के निर्माता थे। डॉ. अंबेडकर का जीवन, उनके विचार और उनके आंदोलनों का उद्देश्य जातिवाद को समाप्त करना और समाज में समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की स्थापना करना था। वे इस विश्वास में थे कि यदि भारत को एक प्रगतिशील और समृद्ध राष्ट्र बनाना है, तो समाज में व्याप्त जातिवाद की कुरीति को उखाड़ फेंकना आवश्यक है। डॉ. अंबेडकर ने न केवल जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाई, बल्कि अपने कार्यों, विचारों और नेतृत्व के माध्यम से उन्होंने समाज में सुधार लाने की दिशा में ठोस कदम उठाए। उनका विश्वास था कि अगर समाज में सच्चे रूप में सुधार करना है, तो यह जातिवाद से ऊपर उठकर करना होगा, जहां सभी वर्गों और जातियों को समान अधिकार मिले। डॉ. अंबेडकर का यह दृष्टिकोण समाज को एकजुट करने और सामाजिक न्याय स्थापित करने की दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ।
इस शोध पत्र में हम डॉ. अंबेडकर के जातिवाद के प्रति दृष्टिकोण, उनके द्वारा किए गए सुधार प्रयासों, और भारतीय समाज में जातिवाद के खिलाफ उनके योगदान का विश्लेषण करेंगे। यह अध्ययन हमें न केवल डॉ. अंबेडकर के विचारों को समझने में मदद करेगा, बल्कि यह भी बताएगा कि उन्होंने किस प्रकार भारतीय समाज में एक स्थायी सामाजिक परिवर्तन की नींव रखी।

मुख्य शब्द: जातिवाद, भारतीय समाज, सामाजिक सुधार, संविधान, दलित अधिका, समानता, राजनैतिक चेतना, शैक्षिक सुधार, सामाजिक परिवर्तन, धार्मिक समता

डॉ. बी. आर. अम्बेडकर का जातिवाद के प्रति दृष्टिकोण
डॉ. बी. आर. अंबेडकर का मानना था कि भारतीय समाज में जातिवाद एक सामाजिक बीमारी है, जो समाज को कई हिस्सों में विभाजित करती है। उन्होंने जातिवाद को सामाजिक असमानता और उत्पीड़न का प्रमुख कारण माना। डॉ. अंबेडकर के अनुसार, जातिवाद का निर्माण हिंदू धर्म की धार्मिक ग्रंथों और सामाजिक संरचनाओं द्वारा किया गया था, जो व्यक्तियों को उनकी जन्मजात जाति के आधार पर ही निर्धारित करते थे और इस व्यवस्था में परिवर्तन की आवश्यकता थी। वे मानते थे कि यदि भारतीय समाज को सशक्त और समान बनाना है, तो जातिवाद को जड़ से उखाड़ना होगा।
अंबेडकर ने जातिवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई में सबसे पहले हिंदू धर्म और उसकी धार्मिक मान्यताओं को चुनौती दी। उनका कहना था कि हिंदू धर्म में जातिवाद को धार्मिक रूप से औचित्यपूर्ण ठहराया गया था और इसे समाप्त करना जरूरी था। इसके लिए उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया और एक समतामूलक समाज की स्थापना की दिशा में कदम बढ़ाया।

डॉ. अम्बेडकर द्वारा भारतीय समाज का विश्लेषण
भारतीय समाज की संरचना अत्यधिक जड़तापूर्ण और असमान थी। कार्ल मार्क्स ने भारतीय समाज के बारे में यह कहा था कि अंग्रेजों के आगमन से पहले भारतीय सामाजिक ढांचा सड़ा और जर्जर हो चुका था। उस समय समाज में जाति व्यवस्था का बोलबाला था, और यह व्यवस्था भारतीय सामाजिक जीवन पर इतना हावी थी कि सामुदायिक, वर्गीय और राष्ट्रीय विचारों का अस्तित्व बनाना असंभव सा प्रतीत हो रहा था।
ऐसी विकृत और विषम सामाजिक परिस्थितियों में डॉ. बी. आर. अम्बेडकर का जन्म भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना माना जाता है। दलित परिवार में जन्म लेने के कारण अम्बेडकर को बचपन से ही इन सामाजिक विषमताओं का सामना करना पड़ा। छुआछूत का प्रहार इतना तीव्र था कि इसका अनुभव उन्होंने छात्र जीवन में ही किया। भीमराव ने समाज के विभिन्न वर्गों से अपमान सहते हुए, असुविधाओं का सामना किया, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। उनकी संघर्षशीलता और आत्मनिर्भरता ने उन्हें जीवन में एक मजबूत दिशा दी।
अम्बेडकर ने अपनी शिक्षा में कभी कोई समझौता नहीं किया। उन्होंने जीवन के प्रति अपनी दृष्टिकोण को बदलते हुए, मन लगाकर पढ़ाई की और उच्च शिक्षा प्राप्त की। इसके लिए उन्होंने विदेश यात्रा भी की और वहां एम.एससी., एम.ए., पीएच.डी., डी.एस.पी. और बार एट लॉ जैसी उपाधियां प्राप्त की। इसके बाद, जब वे भारत लौटे, तो उन्होंने हिन्दू समाज में सुधार की दिशा में कार्य करने का संकल्प लिया।
डॉ. अम्बेडकर ने भारतीय समाज का पुनर्मूल्यांकन करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि समाज में दलितों, पिछड़ी जातियों और महिलाओं की स्थिति सबसे खराब थी। उन्होंने अपनी पूरी शक्ति इन वर्गों के उत्थान और सेवा में समर्पित कर दी। उनका यह कार्य भारतीय समाज के सुधार और समानता के रास्ते पर एक ऐतिहासिक कदम था।

"मानव मात्र के लिए एक धर्म, एक जाति और एक ईश्वर"
डॉ. बी. आर. अम्बेडकर के अनुसार, भारतीय समाज में जातिवाद और सामाजिक असमानता की जड़ें गहरी थीं। हिंदू समाज संगठन में निहित कुछ विशिष्टताएँ थीं, जिन्हें समझने के लिए आवश्यक था कि जाति संबंधी अवधारणाओं को स्पष्ट किया जाए। हिंदू समाज की मूल संरचना में वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति हुई थी, जिसे समाज का विभाजन करने वाली व्यवस्था के रूप में देखा गया था। यह चार वर्ण थे— (1) ब्राह्मण (पुजारी और शिक्षक वर्ग), (2) क्षत्रिय (सैनिक वर्ग), (3) वैश्य (व्यापारी वर्ग), और (4) शूद्र (दास वर्ग)। कुछ काल तक ये केवल वर्ग थे, लेकिन बाद में ये जातियों में विभक्त हो गए। इस प्रकार, आधुनिक जाति व्यवस्था प्राचीन वर्ण व्यवस्था का विकसित रूप थी।
सामाजिक असमानता का यह रूप जिसमें विभिन्न सामाजिक समूह ऊंची-नीची स्थिति में बंटे थे, और प्रत्येक समूह को असमान अधिकार और सुविधाएं मिलती थीं, सामाजिक स्तरीकरण के रूप में पहचाना गया। जातिवाद इस सामाजिक स्तरीकरण का प्रमुख उदाहरण था। डॉ. अम्बेडकर ने इस व्यवस्था का गहन अध्ययन किया और यह निष्कर्ष निकाला कि इसमें लोकतंत्र, स्वतंत्रता और मातृत्व के लिए कोई स्थान नहीं था। यह समाज एक ऐसा गणराज्य था जो विशेषत: अस्पृश्यता के लिए स्थापित था और इसमें शोषण की संरचना बहुत गहरी थी।
डॉ. अम्बेडकर ने हिंदू समाज की जाति व्यवस्था के बारे में गहरी आलोचना की। उन्होंने यह कहा कि यह व्यवस्था न केवल सामाजिक असमानता का प्रतीक थी, बल्कि यह मानवता के लिए एक अभिशाप बन चुकी थी। उन्होंने इस व्यवस्था को समाप्त करने की आवश्यकता पर जोर दिया, क्योंकि यह हिंदू समाज को कमजोर और असमान बना रही थी। उनकी पुस्तक "जाति-भेद का विनाश" में अम्बेडकर ने चेतावनी दी थी कि जब तक जाति व्यवस्था समाप्त नहीं होगी, तब तक हिंदू समाज का सुधार और विकास संभव नहीं है।
उनके अनुसार, जाति व्यवस्था ने समाज में बंधुत्व की भावना को समाप्त कर दिया था। उन्होंने हिंदू धर्म और उसके दर्शन को इस असमानता के लिए जिम्मेदार ठहराया। डॉ. अम्बेडकर ने हिंदू धर्म के गहन अध्ययन के बाद यह कहा कि इसमें असमानता को एक स्वीकृत धार्मिक सिद्धांत के रूप में प्रचारित किया गया था। जाति व्यवस्था को धार्मिक तत्व के रूप में प्रस्तुत किया गया था, और इसे पालन करना कोई शर्म की बात नहीं मानी जाती थी। अम्बेडकर का यह निष्कर्ष था कि हिंदू समाज की यह व्यवस्था ऐतिहासिक रूप से प्राचीन हिंदू धर्म के सिद्धांतों में निहित थी, जिसे मनु ने कानूनी और संस्थागत रूप से व्यवस्थित किया था।
इस प्रकार, डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने जातिवाद को भारतीय समाज की सबसे बड़ी बुराई के रूप में पहचाना और इसे समाप्त करने के लिए कठोर विचार और प्रयास किए। उनका मानना था कि समाज में असमानता का अस्तित्व भारतीय समाज के सुधार और प्रगति में सबसे बड़ी बाधा है।

जातिवाद के खिलाफ अंबेडकर के सुधारात्मक प्रयास
1. संविधान निर्माण और सामाजिक न्याय: डॉ. अंबेडकर भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार थे और उन्होंने संविधान में जातिवाद को समाप्त करने के लिए कई प्रावधान किए। उन्होंने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की ताकि उन्हें शिक्षा, रोजगार और सामाजिक अवसरों में समान भागीदारी मिल सके। इसके साथ ही उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि भारतीय समाज में कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के आधार पर भेदभाव का शिकार न हो। उनके योगदान से ही भारतीय संविधान में "समानता का अधिकार" (Article 14) और "अशुद्धता और भेदभाव के खिलाफ अधिकार" (Article 15) जैसे महत्वपूर्ण प्रावधान शामिल किए गए।
2. सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व: डॉ. अंबेडकर ने जातिवाद के खिलाफ कई सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व किया। उन्होंने "महाड सत्याग्रह" (1927) और "चवदार तालाब आंदोलन" (1930) जैसे आंदोलनों में भाग लिया, जो उन स्थानों पर सार्वजनिक जल स्रोतों पर दलितों के अधिकारों की रक्षा के लिए थे। महाड सत्याग्रह ने दलितों को जल उपयोग के अधिकार से वंचित करने वाली जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष किया।
3. बौद्ध धर्म की ओर मार्गदर्शन: डॉ. अंबेडकर ने हिंदू धर्म के जातिवाद से मुक्ति पाने के लिए बौद्ध धर्म अपनाया और 1956 में लाखों अनुयायियों को बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित किया। उनका मानना था कि बौद्ध धर्म में जातिवाद की कोई जगह नहीं थी, और यह एक समतामूलक समाज की स्थापना की दिशा में सहायक था। बौद्ध धर्म ने उन्हें और उनके अनुयायियों को मानसिक और सामाजिक स्वतंत्रता दी।
4. शैक्षिक और राजनीतिक सुधार: डॉ. अंबेडकर ने दलितों के शिक्षा के अधिकार पर जोर दिया और इसे सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख साधन माना। उन्होंने दलितों को सशक्त बनाने के लिए उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने की प्रेरणा दी। इसके साथ ही उन्होंने राजनीतिक चेतना का प्रसार किया और दलितों को अपनी राजनीतिक ताकत पहचानने के लिए प्रेरित किया। उनका उद्देश्य था कि दलितों को समाज में समानता प्राप्त हो और वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर सकें।
डॉ. अंबेडकर के योगदान का प्रभाव
डॉ. बी. आर. अंबेडकर के जातिवाद के खिलाफ संघर्ष और सुधारात्मक प्रयासों का भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनके द्वारा किए गए कार्यों ने भारतीय समाज में जातिवाद को समाप्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए। भारतीय संविधान में किए गए उनके योगदान से सामाजिक न्याय की दिशा में एक स्थायी आधार प्राप्त हुआ है। हालांकि, जातिवाद पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन डॉ. अंबेडकर के विचार और उनके किए गए संघर्षों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण बदलाव लाए हैं। उनकी उपदेशों ने दलितों को आत्मसम्मान और अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी, और उनके कार्यों ने समाज में समानता और सामाजिक न्याय की दिशा में योगदान किया।
निष्कर्ष
डॉ. बी. आर. अंबेडकर का जीवन और कार्य जातिवाद के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक है। उनका समर्पण और संघर्ष न केवल भारतीय समाज में जातिवाद की जड़ों को नष्ट करने के लिए था, बल्कि उन्होंने समाज में समानता, न्याय और बंधुत्व की स्थापना के लिए एक स्थायी ढांचा तैयार किया। डॉ. अंबेडकर ने अपने विचारों और कार्यों के माध्यम से यह सिद्ध किया कि जातिवाद केवल एक सामाजिक मुद्दा नहीं, बल्कि यह भारतीय समाज की प्रगति और समृद्धि में सबसे बड़ी बाधा है।
उन्होंने भारतीय संविधान को तैयार करते समय यह सुनिश्चित किया कि उसमें समाज के सभी वर्गों के लिए समान अधिकार, अवसर और सम्मान हो। उनकी ओर से किए गए संवैधानिक सुधार आज भी भारतीय लोकतंत्र की नींव के रूप में खड़े हैं। इसके अलावा, उनका बौद्ध धर्म की ओर मार्गदर्शन भी भारतीय समाज में एक नया दृष्टिकोण लेकर आया, जिसमें सभी मानवों को समान मानने का सिद्धांत था। अंबेडकर ने यह सिद्ध किया कि जातिवाद और असमानता केवल एक सामाजिक व्यवस्था नहीं, बल्कि एक मानसिकता है जिसे केवल शिक्षा, जागरूकता और सामाजिक सुधार से बदला जा सकता है।
उनकी विचारधारा और आंदोलनों ने भारतीय समाज को जातिवाद के खिलाफ जागरूक किया और सामाजिक आंदोलनों को एक नई दिशा दी। अंबेडकर के योगदान ने समाज में दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों के अधिकारों के लिए एक स्थायी परिवर्तन का आधार प्रदान किया। उनका यह कार्य न केवल भारत में, बल्कि पूरे विश्व में मानवाधिकार और सामाजिक न्याय के संघर्ष का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना है।
आज भी उनके विचार और कार्य सामाजिक न्याय, समानता और बंधुत्व की दिशा में प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं। उनका जीवन यह दर्शाता है कि संघर्ष और दृढ़ नायकत्व से कोई भी बुराई समाप्त की जा सकती है और एक समतामूलक समाज की स्थापना की जा सकती है। उनके विचार और दृष्टिकोण आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शन के रूप में हमेशा प्रासंगिक बने रहेंगे, और उनका योगदान भारतीय समाज के सुधार और सामाजिक न्याय की दिशा में अनमोल रहेगा।
सन्दर्भ सूची
1. अंबेडकर, बी. आर. (1945). Thoughts on Linguistic States. Government Press.
2. ठाकुर, रामकृष्ण (2000). डॉ. अंबेडकर और भारतीय समाज में जातिवाद. प्रकाशन हाउस, दिल्ली.
3. शाही, श्रीमती रेखा (2003). डॉ. बी. आर. अंबेडकर: समाज सुधारक. राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली.
4. जोशी, आदित्य (2008). आधुनिक भारत में दलित अधिकारों की लड़ाई: डॉ. अंबेडकर का योगदान. हिन्दू विश्व, दिल्ली.
5. नंदन, नीरज (2015). जातिवाद के खिलाफ डॉ. अंबेडकर का संघर्ष. शंकर प्रकाशन, जयपुर.
Keywords .
Field Arts
Published In Volume 16, Issue 1, January-June 2025
Published On 2025-01-27
Cite This डॉ. बी. आर. अम्बेडकर और जातिवाद: भारतीय समाज में सुधार की दिशा - REKHA TAILOR - IJAIDR Volume 16, Issue 1, January-June 2025.

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